उपन्यास >> बशारत मंज़िल बशारत मंज़िलमंजूर एहतेशाम
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बशारत मंज़िल...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
एक उपन्यास जो लगभग दिल्ली ही के बारे में है- पुरानी यानी सन् 47 के पहले की दिल्ली।
मेरी कहानी 15 अगस्त, 1947 तक घिसटती नहीं जाती, उससे पहले ही खत्म हो जाती है। हाँ, यकीनन जो कुछ भी उसमें होना होता है वह इस तारीख से पहले ही हो-हुवा चुकता है।
एक व्यक्ति और उसके परिवार की कहानी जो एक जमाने में हर जगह था। शायरी से लेकर सियासत यानी तुम्हारे शब्दों में हकीकत से लेकर फसाने कर, हर जगह ! लेकिन आज जिसका उल्लेख न तो साहित्य में है, न इतिहास में। संजीदा सोज़ और बशारत मंज़िल की कहानी। बिल्लो और बिब्बो की कहानी। ग़ज़ल की कहानी। इन तीनों बहनों की माँ, अमीना बेगम की कहानी। सोज़ की दूसरी पत्नी, जो पहले तवाइफ़ थी और उसके बेटे की कहानी। सारी कहानियों की जो एक कहानी होती है, वह कहानी। मेरी और तुम्हारी कहानी भी उससे बहुत हटकर या अलग नहीं हो सकती। न है।
चावड़ी बाज़ार?- मैंने कहना शुरु किया था – चलो, यहाँ से अन्दाज़न उल्टे हाथ को मुड़कर क़ाज़ी के हौज़ से होते हुए सिरकीवालों से गुज़रकर लाल कुएँ तक पहुँचो। उसके आगे बड़ियों का कटरा हुआ करता था। वहाँ से आगे चलकर नए-बाँस आता था। वह सीधा रास्ता खारी बावली को निकल गया था। नुक्कड़ से ज़रा इधर ही दायें हाथ को एक गली मुड़ती थी। वह बताशोंवाली गली थी। एक ज़माने में वहाँ बताशे बनते आँखों से देखे जा सकते था। बाद में वहाँ अचार-चटनी वालों का बड़ी मार्कीट बन गया था। मार्कीट के बीच से एक गली साधे हाथ को मुड़ती थी। थोड़ी दूर जाकर बायीं तरफ़ एक पतली-सी गली उसमें से कट गई थी। इस गली में दूसरा मकान बशारत का था : पुरानी तर्ज़ की लेकिन नई-जैसी एक छोटी हवेलीनुमा इमारत।...
मेरी कहानी 15 अगस्त, 1947 तक घिसटती नहीं जाती, उससे पहले ही खत्म हो जाती है। हाँ, यकीनन जो कुछ भी उसमें होना होता है वह इस तारीख से पहले ही हो-हुवा चुकता है।
एक व्यक्ति और उसके परिवार की कहानी जो एक जमाने में हर जगह था। शायरी से लेकर सियासत यानी तुम्हारे शब्दों में हकीकत से लेकर फसाने कर, हर जगह ! लेकिन आज जिसका उल्लेख न तो साहित्य में है, न इतिहास में। संजीदा सोज़ और बशारत मंज़िल की कहानी। बिल्लो और बिब्बो की कहानी। ग़ज़ल की कहानी। इन तीनों बहनों की माँ, अमीना बेगम की कहानी। सोज़ की दूसरी पत्नी, जो पहले तवाइफ़ थी और उसके बेटे की कहानी। सारी कहानियों की जो एक कहानी होती है, वह कहानी। मेरी और तुम्हारी कहानी भी उससे बहुत हटकर या अलग नहीं हो सकती। न है।
चावड़ी बाज़ार?- मैंने कहना शुरु किया था – चलो, यहाँ से अन्दाज़न उल्टे हाथ को मुड़कर क़ाज़ी के हौज़ से होते हुए सिरकीवालों से गुज़रकर लाल कुएँ तक पहुँचो। उसके आगे बड़ियों का कटरा हुआ करता था। वहाँ से आगे चलकर नए-बाँस आता था। वह सीधा रास्ता खारी बावली को निकल गया था। नुक्कड़ से ज़रा इधर ही दायें हाथ को एक गली मुड़ती थी। वह बताशोंवाली गली थी। एक ज़माने में वहाँ बताशे बनते आँखों से देखे जा सकते था। बाद में वहाँ अचार-चटनी वालों का बड़ी मार्कीट बन गया था। मार्कीट के बीच से एक गली साधे हाथ को मुड़ती थी। थोड़ी दूर जाकर बायीं तरफ़ एक पतली-सी गली उसमें से कट गई थी। इस गली में दूसरा मकान बशारत का था : पुरानी तर्ज़ की लेकिन नई-जैसी एक छोटी हवेलीनुमा इमारत।...
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